Image: "UP govt. admits deaths of 34 children in Muzaffarnagar riots relief camps", www.pardaphash.com
सो सूनी सी आँखें गयी हैं,
इंतज़ार की कड़ी को तकते |
याद मुझे वो आज भी पल है,
सोई गर्म तेरी सांसें जब
थीं |
ठण्ड प्रकोप प्रलय विघ्न
निशाचर
बैठा था अपने फन फैलाये,
काले अम्बर के नीचे निर्मित
नील कपास की निर्मम कुटिया
बसी थी जिसमे कुटुंब क्रिथव
की,
और बसे थे जिसमें मैं और तू
|
चार मास के तेरे क्षुद्र
वक्त्र को
चुभे थे जब शीतकाल के कांटे
अनुस्मरण का बाँध टुटा था
हृदय में तेरी माँ का, बेटा
|
लहू से लथपथ लाश लिए जब
पड़े थे मैं वो आलिंगनबद्ध,
धर्म के बाशिंदे कहाँ गए वो
आये थे जो कटारों के संग |
आंसूं भी न बहे थे मेरे
न सिसका था मन ये मेरा
हृदय हुंकार-बद्ध सिकुड़ा कुचला
प्रेम तब भी कायम था मेरा |
लाश जली, हुई लाल थी धरती
आक्रोश से जमा था मेरा बोध,
किलकारियां तेरी, तेरा
क्षणभर का रोदन
सुनकर काँप उठा था मैं
मातृप्रेम रहित तेरा वो
क्रंदन |
प्रतिकार प्रतिहिंसा प्रतिक्रिया
निर्यातन
छोड़ कोशिशें की मैंने भरने
की
उस मातृ श्वभ्र छिद्र अंतर
को
ये कुटिया फिर मिली हमें,
धन्यवाद्
एक सरकार सुनिश्चित आश्वासन
को |
फिर एक दिन एक पल वो पल आया
जब टपकी मौत की बूँदें ठंडी
जब ग्रीष्म शरीर तेरा शीत
हुआ था
ली जब थी तूने सांसें अंतिम
|
अब आज मिली मृदंग-हुंकार तृप्त
एक वाहन की कृपादृष्टि से
इक कम्बल प्रच्छद लिहाफ नवत पट |
अब आज ये रक्त चीख रहा है
लाऊं तुझे मैं यादों से
खींच
और ओढ़ा दूं प्रेम, ऊर्ण से निर्मित |
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